धर्म-कर्म – मनुष्यता पाने के लिए स्वाध्याय जरूरी है

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ज्ञान ही प्रगति की आधारशिला है। अज्ञानी व्यक्ति की सारी शक्तियां उसके भीतर निरुपयोगी बनी बन्द रहती है और शीघ्र ही कुंठित हो नष्ट हो जाती हैं। जिन शक्तियों के बल पर मनुष्य संसार में एक से एक ऊंचा कार्य कर सकता है, मोक्ष जैसा परम पद प्राप्त कर सकता है, उनका इस तरह नष्ट हो जाना मानव जीवन की सबसे बड़ी क्षति है। इस क्षति का दुर्भाग्य केवल इसलिए सहन करना पड़ती है, क्योंकि वह ज्ञानर्जन में प्रमाद करता है। मानव जीवन को सार्थक बनाने, उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने और आध्यात्मिक स्थिति पाने के लिए सद्ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होनी ही चाहिए।

ज्ञान की जन्मदात्री मनुष्य की विवेक बुध्दि को ही माना गया है जो मनुष्य अपनी बुध्दि का विकास अथवा परिष्कार नहीं करता अथवा अविवेक से वशीभूत होकर बुध्दि के विपरीत आचरण करता है, वह आध्यात्मिकता के उच्च शिकर को पाना तो दूर साधारण मनुष्यता से भी गिर जाता है। वह एक जन्तु जैसा जीवन जीता हुआ उन महान सुखों से वंचित रह जाता है, जो मानवीय मूल्यों को समझने और आदर करने से मिला करते हैं। ऐसा सारहीन जीवन जीना मानवता का अनादर है, उस परम पिता परमात्मा का विरोध है, जिसने मनुष्य को ऊर्ध्वगामी बनने के लिए आवश्यक क्षमता का अनुग्रह किया है।

बुध्दि के संवर्धन-परिमार्जन के लिए विचार को ठीक दिशा में प्रचलित करना होगा। जिनके विचार अधोगामी अथवा निम्नस्तरीय होते हैं उनका बौध्दिक पतन निश्चित है। विचारों का पतन होते ही मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन दूषित हो जाता है। पतित विचारों वाला व्यक्ति इतना अशक्त एवं असमर्थ होता है कि अपने फिसलते पैरों को स्थिर करना उसके वश की बात नहीं रहती।

विचार बड़े ही सांमक, संवेदनशील तथा प्रभावग्राही होते हैं। जिस प्रकार के व्यक्ति के संसर्ग में रहा जाता है, मनुष्य के विचार भी उसी प्रकार के बन जाते हैं। चरित्रवान तथा सदात्माओं का सत्संग करने से मनुष्य के विचार महान और सदाशयतापूर्ण बनते हैं। किन्तु आज के युग में सच्चे सन्त पुरुषों का समागम दुर्लभ है। जो हैं, उनकी खोज के लिए किसी के पास समय नहीं। ऐसे में स्वाध्याय ही सर्वोत्तम सत्संग का माध्यम सिध्द होता है। पुस्तकें विद्वानों का बौध्दिक शरीर हैं। उनमें उनका व्यक्तित्व बोलता है, वह भी बहुत ही व्यवस्थित तरीके से। आज के समय में स्वाध्याय से ही ज्ञान का प्रकाश सरलता से मिल सकता है।