इसी तरह सत्तासीन लोगों की उदासीनता और भ्रष्टाचार से परेशान जनमानस धीरे-धीरे इस बात के कायल हो जाते हैं कि शासन तो डंडे के जोर पर ही चलता है। यही कारण है कि हमें इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी जैसे तेज़-तर्रार शासक कहीं ज़्यादा पसंद आते हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं का ढेर लग गया और चाहे-अनचाहे बहुसंख्यक वर्ग ने स्वयं को उपेक्षित महससू करना शुरू कर दिया…
यह एक तथ्य है कि मानव मस्तिष्क खुद ही अनुशासन में रहने के लिए शायद नहीं बने हैं। हमें कोई बाहरी शक्ति अनुशासन में रहने के लिए विवश करती है और जहां निगरानी में कमी हो, छूट हो, वहां धीरे-धीरे उच्छृखंलता पसर जाती है। एक वर्ष पूर्व लिस्बन में राजनीतिक मनोवैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय सोसायटी के वार्षिक अधिवेशन में बोलते हुए नामचीन प्रोफेसर शॉन रोज़ेनबर्ग ने यह कहकर सबको चौंकाया था कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का हृस हो रहा है और लोकतंत्र इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाए। आज वह आशंका बलवती होती नज़र आ रही है। शॉन रोज़ेनबर्ग ने येल, आक्सफोर्ड तथा हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की है और उनकी विद्वता का सिक्का विश्व भर में चलता है। प्रोफेसर रोज़ेनबर्ग के इस निष्कर्ष को हम भावना का अतिरेक भी मान लें तो भी बहुत से ऐसे तथ्य हैं जिनकी उपेक्षा कर पाना संभव नहीं है। शासन व्यवस्था तथाकथित अभिजात्य वर्ग के नियंत्रण से निकल कर सामान्यजनों के हाथ में आ गई है। इतिहास की ओर देखें तो हम पाएंगे कि बीसवीं सदी लोकतंत्र का स्वर्ण युग रही है। सन् 1945 में विश्व भर में कुल 12 देशों में लोकतंत्र था। बीसवीं सदी की समाप्ति के समय यह संख्या बढ़कर 87 तक जा पहुंची, लेकिन उसके बाद लोकतंत्र के प्रसार पर रोक लग गई। कुछ देशों में दक्षिणपंथी विचारधारा ने कब्जा कर लिया है या पोलैंड, हंगरी, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली, ब्राज़ील, अमरीका और भारत जैसे देशों में यह लगातार शक्तिशाली हो रही है। दक्षिणपंथी विचारधारा को जहां विश्व भर में सन् 1998 में सिर्फ 4 प्रतिशत लोगों का समर्थन था, सन् 2018 आते-आते यह बढ़कर 13 प्रतिशत तक जा पहुंचा है।
लोकतंत्र को संभालना अत्यंत बुद्धिमता और मेहनत का काम है। सामान्यजन बुद्धिमता के उस स्तर तक पहुंचने में नाकाम रहा है जहां लोकतंत्र को समझा और संभाला जा सके। अव्यवस्था से परेशान नागरिक अंततः दक्षिणपंथ की शरण में गए हैं और आम आदमी यह मानता है कि शासन तो डंडे से ही चलता है। यानी खुद हम नागरिक ही इस बात का समर्थन करते हैं कि कड़े अनुशासन और सजा के प्रावधान के बिना हम नैतिकता और कानून की परवाह नहीं करेंगे। यह सिर्फ आम जनता का विचार ही नहीं है, बल्कि समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और उच्च शिक्षित लोगों की राय का भी प्रतिनिधित्व करता है। प्रोफेसर रोज़ेनबर्ग का कहना है कि अगले कुछ दशकों में पश्चिमी स्टाइल का लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा, बहुत से देश लोकतांत्रिक व्यवस्था से मुख मोड़ लेंगे और जो बाकी बचेंगे वो भी अपने आप में सिमटे से रहेंगे। उनका कहना है कि समस्याएं जटिल हैं और दक्षिणपंथ उनके सरल समाधान प्रस्तुत करता है। यह अलग बात है कि उनमें से बहुत से या तो व्यावहारिक नहीं हैं या उचित नहीं हैं या उन पर अमल संभव नहीं है। सामान्यजन बुद्धिमता के उस स्तर तक पहुंचने में नाकाम रहा है। हम लोग दूसरों की असहमति बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। खुद से भिन्न विचारों से खुश नहीं होते और सूचना के समंदर में से सही और गलत का फर्क नहीं कर पाते क्योंकि हम इसके लिए आवश्यक ज्ञान, विवेक, तर्क और अनुशासन की क्षमता का विकास नहीं कर पाए हैं। प्रोफेसर रोज़ेनबर्ग सन् 1980 में पहली बार तब चर्चा का विषय बने थे जब उन्होंने यह कहा कि बहुत से मतदाता नेता के ज्ञान और काम के बजाय उसकी शक्ल-सूरत के आधार पर वोट देते हैं।
इसी तरह सत्तासीन लोगों की उदासीनता और भ्रष्टाचार से परेशान जनमानस धीरे-धीरे इस बात के कायल हो जाते हैं कि शासन तो डंडे के जोर पर ही चलता है। यही कारण है कि हमें इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी जैसे तेज़-तर्रार शासक कहीं ज़्यादा पसंद आते हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं का ढेर लग गया और चाहे-अनचाहे बहुसंख्यक वर्ग ने स्वयं को उपेक्षित महससू करना शुरू कर दिया। तब अल्पसंख्यकों की धौंस थी, पिछड़े वर्ग की सुनवाई कुछ ज़्यादा थी, अब बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही है। हम यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि संतुलित व्यवहार के बिना यह तानाशाही और ज़ोर-जबरदस्ती लंबे समय तक नहीं चल सकती। इससे सिर्फ समाज में वैमनस्य ही बढ़ेगा और खून के बदले खून या सिर के बदले सिर की संस्कृति से किसी को लाभ नहीं है। लोकतंत्र की मांग है कि अनेकता वाले समाज में सद्भाव और उदारता के साथ ही चला जा सकता है। हमें मानना ही पड़ेगा कि हमसे भिन्न तरह से सोचने और दिखने वाले लोगों का भी देश पर उतना ही हक है जितना हमारा। लेकिन दूसरी कौम के लोगों के साथ सामंजस्य बनाकर रखने के बजाय उनका मज़ाक उड़ाना और उन्हें नीचा दिखाना ज़्यादा आसान काम है और आज हम वही कर रहे हैं। इसके लिए सच की आवश्यकता नहीं है, तर्क गढ़े जा सकते हैं।
राष्ट्रभक्ति, देशभक्ति और धर्म के नाम पर लोगों को इकट्ठा किया जा सकता है, बरगलाया जा सकता है और उत्तेजित किया जा सकता है। ओवैसी हो या ठाकरे, सबने इस हथियार का प्रयोग बड़ी कुशलता और आसानी से किया है। निष्ठाएं बदल गई हैं और आम भारतीय के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं, लोकतांत्रिक संस्कृति और व्यवहार की उपेक्षा करना गर्व का विषय बन गया है। रोज़ेनबर्ग की भविष्यवाणी कब सच्ची होगी, सच होगी भी या नहीं, यह कहना आसान नहीं है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि हम लोग एक खतरनाक रास्ते पर तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं जिसके परिणाम शुभ होने के अवसर न के बराबर हैं। निकट भविष्य में जो काम और नीतियां हमें जिताती हुई प्रतीत होती हैं, वे ही बाद में हमारे विनाश का कारण बन सकते हैं। अभी हम तेज़ी से एक गलत दिशा की ओर दौड़ रहे हैं, यहां रास्ते में कोई स्पीड-ब्रेकर नहीं है और हमारे अंदर किसी ब्रेक का प्रावधान नहीं है। यह अंधी दौड़ हमें कहां ले जाएगी, कहना मुश्किल है। समस्या यह नहीं है कि सबसे बड़ा नेता क्या सोचता है, समस्या यह है कि आम जनता क्या सोचती है, आम जनता उग्र विचारों के समर्थन में कितना आगे तक जा सकती है। आज हम विदेशी घुसपैठियों की बात करें या अपने देश पर आक्रमण करने वाली जातियों के पूर्वजों की बात करें, हम यह भूल जाते हैं कि यह सिर्फ एक व्यक्ति की भूल नहीं है, यह एक विचारधारा की भूल है। व्यक्ति को बदला जा सकता है, उसे हटाया जा सकता है, लेकिन विचारधारा में परिवर्तन उतना आसान नहीं है और एक बार जब हम किसी विशिष्ट विचारधारा के समर्थन में उतर आएं तो फिर हमारे लिए खुद को बदल पाना भी कई बार संभव नहीं हो पाता। प्रोफेसर रोज़ेनबर्ग इसी डर का इज़हार करते हुए कहते हैं कि लोकतंत्र की सीमाएं छोटी होती जा रही हैं, सिमटती जा रही हैं और यह बहुत संभव है कि आने वाले कुछ दशकों में लोकतंत्र से चलने वाले देशों की संख्या इतनी कम हो जाएगी कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकेगा। -पी. के. खुराना