प्रेमचन्द शब्द भारतीय जन मानस में चिर प्रतिष्ठित है। उनमें एक मजबूत सैनिक की ताकत है, साहसी की आवाज भी। उन्होंने समाज में प्रचलित अन्यायों और अत्याचारों के विरुद्ध अपनी कलम से संघर्ष चलाया। उनकी तूलिका तलवार से भी ज्यादा पैनी और तेज थी। इसलिए उन्हें कलम के सिपाही कहते है। अंग्रेजों ने उनकी पहली रचना सोजे- वतन को जलाकर उनके जीवन को हिलाना चाहा। किन्तु वे न हिले न डुले, कलम को बंदूक बनाकर उनकी छाती की ओर अक्षर-रूपी गोली चलाकर लाखों-करोड़ों निस्सहायों-अस्सहायों की रक्षा की।
प्रेमचन्द भारतीय समाज के तरह तरह के सवालों का जवाब है। जो भी बुराई हो, वे समरसता के बिना अनवरत लड़ते रहे। महत्वपूर्ण कार्य करने वाले को महान कहते है। प्रेमचन्द महत्वपूर्ण कार्य कर महान बन गये है। उस महान का जीवन एक इतिहास है।
तकषी नाम से विख्यात शिवशंकर पिल्लै ने केरल मलयालम भाषा में लिखकर विश्व साहित्य में प्रतिष्ठा पायी है। प्रेमचन्द की तरह तकषी भी गांव में जन्मे थे। वह लोगों के बीच अति साधारण मनुष्य के रूप में जीवन बिताकर, साहित्य में अमर स्थान पा कर, शाश्वत स्मृति छोड़कर चला गया विश्वविख्यात उपन्यासकार है। मलयालम साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करते हुए 1970 में उन्होंने कहा- ऐसा एक जमाना था जब कि केरल जनता और उनका साहित्य पूर्ण रूप से अवरुद्ध होकर खड़ा था। ऐसे समाज में साहित्य को रास्ता दिखाकर आगे ले जाने के लिए कुछ लोग आये। (1) उन लोगों में तकषी का स्थान सर्वोपरि है। उन्नीसवीं शती में हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि के लिए प्रेमचन्द ने जो काम किया वही काम मलयालम में तकषी ने किया।
तकषी मलयालम के संक्रांति काल के साहित्यकार है। उस समय समाज साहूकारी, सामंतकारी अव्यवस्था के चक्कर से धीरे धीरे मुक्ति पाकर जमींदारी व्यवस्था के नीचे दबा हुआ था। कुत्ते-बिल्ली को पालना तथा छूना पुण्य और दलित के पास खड़ा होना पाप समझने वाले लोगों के बीच से उठ कर तकषी पद दलित लोगों के पक्षपाती बन कर रहे। वह सैकड़ों वर्षों से जानवर से तुच्छ जीवन बिताने वाले लोगों के इतिहासकार थे। प्रेमचन्द को दुखियों-पीड़ितों के वकील कहते है। तकषी ने भी प्रेमचन्द के समान दुखियों और पीड़ितों को अपनी कृतियों का विषय बनाया। उनके समान पद-दलितों को स्थान देने वाला कोई भी साहित्यकार उस समय केरल में नहीं थे।
हिन्दी भाषी उपन्यास सम्राट स्वर्गीय प्रेमचन्द का जितना आदर-सम्मान करते हैं, मलयालम भाषा-भाषी तकषी को उतना आदर-सम्मान देते हैं। वे उन्हें अपने पथ प्रदर्शक समझते है। तकषी मलयालम के मौलिक प्रतिभा संपन्न लेखक है। प्रेमचन्द ने उत्तर भारत के, विशेषकर अवध के किसानों-पद दलितों का चित्रण दिया है तो तकषी ने आलप्पुषा को पृष्ठभूमि बनाया है। केरल के कुट्टनाटु के किसान, मजदूर एवं साधारण लोगों के चित्रण ने उन्हें विश्व साहित्यकार के अनुपम पद एवं भारतीय ज्ञानपीठ पर बिठाया था। तकषी कुट्टनाटु के इतिहासकार है।
प्रेमचन्द आधुनिक भारतीय साहित्य के ध्रुव तारा तो तकषी अब तक के मलयालम साहित्य के गुंबज है। प्रेमचन्द के पात्र और उनके संदेश जहां-जहां व्याप्त है वहां-वहां रचयिता का यश फैले है। उनके कालातीत उपन्यासों की संख्या ग्यारह है, इसके अलावा 300 से भी अधिक कहानियां, निबंध आदि उन्होंने लिखी है। तकषी ने अपनी लंबी जीवन यात्रा के बीच तीस से अधिक छोटे-बड़े उपन्यास लिखे है।
प्रेमचन्द और तकषी सचमुच बहुआयामी कलाकार है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में दो प्रकार की प्रणालियां देख सकते है। पहली एक मुख्य कथा को लेकर चलने वाली और दूसरी एक से अधिक कथाओं के साथ चलनी वाली है। प्रेमचन्द के सारे उपन्यासों में प्रेमा, प्रतिज्ञा, गबन सेवासदन, निर्मला, मंगलसूत्र आदि एक मुख्य कथा को ले कर रचित है। रंगभूमि, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि। कायाकल्प एवं गोदान में एक से अधिक कथानक की चर्चा होती है। ये कृतियां किसानों के जीवन-विषयों पर आधारित उपन्यास है। ऐसे उपन्यासों में स्वाभाविक रूप से वर्ग संघर्ष का चित्रण आता है। इसलिए दरिद्र-धनिक या किसान-जमींदार का चित्रीकरण अनिवार्य बन पड़ता है। अथवा ऐसे संदर्भों में दुहरी कथा को एक साथ चलाने का नौबत पड़ता है। उन्होंने किसान संबंधी उपन्यासों में संघर्ष का वर्णन कितने जोर से करता है उतना तीष्ण चित्रण पारिवारिक उपन्यासों में नहीं करता है। तकषी ने भी किसानों-मजदूरों का वर्णन बड़े ऊर्जा के साथ किया है।
प्रेमचन्द और तकषी के आदर्श एवं दृष्टिकोण में एकता होने के समान दोनों के कथापात्रों में भी अनेक समानतायें पायी जाती हैं। प्रेमाश्रम का मुख्य पात्र प्रेमशंकर और तकषी के पेरिल्ला कथा (नामहीन कथा) उपन्यास के शशी साम्यवादी है। जमींदारों के विरुद्ध आवाज उठाने वाला प्रेमशंकर और शशी में नवचेतना का ऊर्जा भरा हुआ है।
प्रेमचन्द और तकषी शिवशंकर पिल्लै ने अपने अपने उपन्यासों में स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। दोनों की दृष्टि में अधिकांश स्त्रियां विविध कारणों से दुःखी एवं पीड़ित हैं। दोनों ने विरल स्त्री पात्रों को छोड़ कर बाकी सभी के वर्णन में सहानुभूति दर्शाया है। वैसे प्रेमचन्द और तकषी के अधिकांश स्त्री पात्र परिवर्तनवादी है। तकषी ने अपने कुछ स्त्री पात्रों में साम्यवाद की शक्ति दर्शायी है।
प्रेमचन्द के समान तकषी ने भी स्त्री को लड़की, युवती, प्रेमिका, वेश्या, माता, सेविका आदि विभिन्न रूपों में चिश्त्रित किया है। दोनों के स्त्री-पात्रों में कर्तव्य निभाने वालों के साथ कर्तव्य भूलने वाले भी होते है। दोनों उपन्यासकारों ने स्त्री का मातृत्व भाव साकार करने का प्रयास किया है। प्रेमचन्द के वरदान की सुवामा, रंगभूमि की रानी जाह्नवी एवं मिसिस जॉनसेवक, गोदान की धनिया तथा गोविंदी, निर्मला की कल्याणी, तकषी के चेम्मीन (झींगा मछली) की चक्की, रंटिटंङषी (दो सेर धान) की चिरुता, परमार्थङल (सच) की जानकी अम्मा आदि स्त्रियां मातृत्व भाव की प्रतिमूर्तियां है। गोदान का धनिया मातृत्व की सच्ची रूप है। वह सोना एवं रूपा को अमित प्यार करती है। वैसा मातृ स्नेह चेम्मीन की चक्की अपनी संतान करुत्तम्मा तथा पंचमी से करती है। तकषी ने चेम्मीन (झींगा मछली) में करुत्तम्मा, परमार्थंङल (सच) में विजयम्मा, एणिप्पटिकल (सीढ़ी के पायदान) में तंक्कम्मा, औसेप्पिन्टे मक्कल (औसेप्प के बेटे) में क्लारा आदियों में सच्ची प्रेमिका का रूप दर्शाया है। प्रेमचन्द ने रंगभूमि की सोफिया, गोदान की मालती, कायाकल्प की मनोरमा, कर्मभूमि की सकीना आदि अनेक पात्रों द्वारा प्रेमिका का भव्य चित्र खींचा है। प्रेमचन्द उत्तर भारत में जन्म ले कर, वहां के वातावरण में पल कर, वहां के लोगों के बीच रह कर साहित्य सर्जना करते थे। तकषी दक्षिण भारत में जन्म ले कर, इधर की परिस्थिति में रह कर, यहां के लोगों के जीवन से मिल-जुल कर रचना करते थे। दोनों के जीवन काल में भी अंतर है। कहने का तात्पर्य है कि दोनों की रचनाओं में समानताएं ही नहीं, विभिन्नतायें भी पायी जाती है। सच कहें तो दोनों में विभिन्नता कम और एकता ज्यादा है। समग्रताः कह सकते है कि प्रेमचन्द और तकषी ने अपने अपने उपन्यासों में तत्कालीन समाज का भरा-पूरा चित्र उतार दिये हैं।