पूरी दुनिया में आजकल राजनेताओं के आचरण को देखकर बड़ी फिक्र होती है। समूचे राजनीतिक विस्तार पर नज़र डालें तो दिखेगा कि चाहे वे अमरीका के दक्षिणपंथी नेता हों या चीन या रूस के वामपंथी नेता, सभी में बढ़-चढ़कर तानाशाही प्रवृत्तियां नज़र आ रही हैं। वैश्विक परिदृश्य का जो कोई भी गौर से अवलोकन कर रहा होगा, उसे दिखेगा कि म्यांमार और बेलारूस जैसे छोटे देशों समेत कई देशों में राष्ट्रीय नेताओं की ऐसे नीयत ही बन गई है कि वे किसी भी कीमत पर सत्ता अपने हाथों में थामे रखना चाहते हैं।
इसके समर्थन में एक तर्क जो हम अक्सर सुनते हैं, वह है कि एक केन्द्रीय अर्थव्यवस्था चलाने के लिए जरूरी है कि शासक में तानाशाही प्रवृत्तियां हों, क्योंकि उसे ऐसे फैसले करने पड़ते हैं जो कई बार लोकप्रिय नहीं होते। इन फैसलों पर अमल करने का जो विरोध होता है, उसे भी दबाना जरूरी हो जाता है। इन वैश्विक प्रवृत्तियों की छाया राष्ट्रीय और साथ ही राज्यों के स्तर पर भी देखी जा सकती है, न सिर्फ भारत के प्रधानमंत्री, बल्कि कुछ वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों ने भी समूची ताकत को अपने हाथों में लिया है और उसका उपयोग वे मीडिया समेत कई संस्थानों को प्रभावित करने के लिए कर रहे हैं। अपने जन-विरोधी तौर-तरीकों और आचरण के बावजूद वे चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं। जनता में उनके ऐसे अनुयायियों की संख्या भी बेशुमार है जिन्हें उनकी नेतृत्व शैली में पूरा भरोसा है।
दुनिया में कुछ ऐसा है जो बहुत ही भयावह रूप से बिगड़ चुका है और नेतृत्व के बारे में हमारी सामूहिक समझ ही विकृत हो चली है। कुछ खतरनाक विचार हमारी सामूहिक चेतना में जैसे गुंथ चुके हैं। राजनीति को एक ऐसे मंच के रूप में विकसित किया गया था जिसके जरिए समाज संगठित हो सके। दुर्भाग्य से आज के राजनेता राजनीतिक कार्य के बुनियादी अर्थ और उद्देश्यों को समझने में विफल रहे हैं और समाज को संगठित करने के अलावा हर कार्य कर रहे हैं। भारत, फ्रांस, अमरीका और कोलंबिया जैसे देशों में कई युवा इस तरह की घटनाओं को लेकर काफी फिक्रमंद हैं। वे चाहते हैं कि इस तरह की राजनीतिक संस्कृति का अंत हो। हाल ही में आयोजित एक वेबिनार में कई युवकों ने निचले स्तर से नेतृत्व को निर्मित करने की प्रक्रिया की जरूरत सामने रखी। वे इस बारे में भी चर्चा कर रहे थे कि सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए जिससे स्थानीय समुदाय अपनी नियति को गढ़ने की जिम्मेदारी खुद ही ले सकें।
महात्मा गांधी के राजनीतिक दर्शन के अनुसार जब प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति निर्धारित करने की स्थिति में आ जाएगा और समाज में पारस्परिक संबंधों का सम्मान भी करने लगेगा, तभी सही अर्थ में हम आजाद होंगे। सबसे आश्चर्यजनक सच्चाई तो यह है कि कई लोग जिन्होंने लंबे समय तक लोकतंत्र के नाम पर संघर्ष किया, वे खुद ही सत्ता मिलने के बाद छोटे-मोटे तानाशाहों में तब्दील हो गए। ऐसे सैकड़ों उदाहरण देखने के लिए बस हमें एक बार गौर से अपने चारों ओर देखना पड़ेगा। भारत का ही उदाहरण ले लें। जो इन दिनों सत्ता में हैं, वे वही लोग हैं जिन्होंने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का विरोध किया था।
व्यक्तिगत आजादी पर आक्रमण, भय के माहौल का निर्माण, असहमति के दमन आदि सभी तरह के संगठनात्मक तरीकों का इस्तेमाल देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि आज का माहौल आपातकाल के वातावरण से ज्यादा अलग नहीं है। नेताओं की ख़रीद-फरोख्त, जनता, मीडिया और राजनीतिक विरोधियों की आवाज़ दबाने के लिए हर तरह के संगठनात्मक तरीकों का इस्तेमाल करना, यही वे तरीके हैं जिनके जरिए आपातकालीन स्थितियों का संचालन किया जाता है। असली इम्तिहान इस बात का नहीं कि तानाशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ कोई कितनी पुरजोर आवाज़ उठाता है, बल्कि इस बात का है कि जब किसी को सत्तारूढ़ होने का मौका मिलता है, तब वह कैसा आचरण करता है।
मेरे कई मित्र हैं जो किसी भी तरह के तानाशाही शासकों के खिलाफ हैं। ऐसे तानाशाहों के खिलाफ लड़ने के लिए वे अपनी जान तक दांव पर लगा सकते हैं, पर जब भी मैं उनके संगठनों में जाता हूं तो मैं उनके भीतर ही नेता के रूप में तानाशाही प्रवृत्तियां देखता हूं। अपनी टीम के सदस्यों के साथ सत्ता बांटने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती और भागीदारी पर आधारित प्रशासन के तौर-तरीकों में भी उनकी कोई आस्था नहीं दिखाई पड़ती। वे संगठन में अपनी टीम के सदस्यों को किसी लायक भी नहीं समझते। यदि कोई उनसे अपने ही संगठन के भीतर सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करता है तो ये नेता उन्हें कोई अवसर नहीं देते।
मनोवैज्ञानिक तौर पर इसे प्रतिबिंब या प्रतिछाया का एक शास्त्रीय उदाहरण कह सकते हैं। जो नेता सत्ता के केन्द्रीकरण और अलोकतांत्रिक ढंग से फैसले लेने का विरोध करते हैं, वे अक्सर उनकी तरह ही होते हैं जिनके खिलाफ संघर्ष करते हैं। अक्सर उनकी लड़ाई मूल्यों पर आधारित नहीं, बल्कि किसी ख़ास व्यक्ति से होती है। जो भी सत्ता में रहता है, उसके साथ ही उनकी होड़ लगी रहती है और उनका मन भी सत्ता को हासिल करने के लिए व्याकुल रहता है।
मेरे अपने कारण हैं जिनके आधार पर मैं कई संगठनों के इस नेतृत्व-मॉडल का विरोध करता हूं। मेरा मत है कि सिर्फ लोकतंत्र के समर्थन में बातें करके और तानाशाही के विरोध में बोलकर चीज़ें नहीं बदलने वाली। अपनी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की शुरुआत स्वयं से और अपने संगठन से ही की जानी चाहिए। ये ही वे स्थान हैं जहां लाए गए बदलाव वृहत्तर समाज में परिवर्तन ला सकते हैं। यदि हम बीस से तीस लोगों के एक संगठन को लोकतांत्रिक तरीके से मिल-जुलकर नहीं चला सकते तो हमें क्या नैतिक हक़ है कि हम भारत में या दुनिया में लोकतंत्र को लेकर हो-हल्ला मचाएं। यह तो वही बात हुई कि कोई पार्टी विपक्ष के दमन के विरोध की बात करे और जब खुद सत्ता में आए तो विपक्ष का दमन करने लगे। क्या भाजपा ने नहीं कहा था कि यदि वे सत्ता में आएंगे तो धरती पर स्वर्ग बना डालेंगे? पर अब हम देख सकते हैं कि स्थिति पहले से कहीं ज्यादा बदतर है।
उन्होंने एक ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है जहां अविश्वास, नफरत और मजबूरी का माहौल है। शायद स्वर्ग की उनकी धारणा यही है। इसलिए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि जो राजनीतिक दल, संगठन और व्यक्ति लोकतंत्र के बारे में बातें करते हैं, उन्हें पहले अपने आचरण के द्वारा लोकतंत्र में अपनी आस्था को साबित करना चाहिए। गांधी जी ने बार-बार दोहराया है कि हम जो कहते और करते हैं उनके बीच पूर्ण समरसता होनी चाहिए। किसी विचार पर प्रवचन देने से पहले वे उसे करके दिखाते थे। आज हमारे देश की समस्या यह है कि कई लोग लोकतंत्र पर भाषण दे रहे हैं, पर जब उन्हें अवसर मिलता है तो वे इस पर काम नहीं करते। हर देश में अब लोग नई किस्म के नेतृत्व की प्रतीक्षा में हैं जो लोगों का दर्द समझ सके और उनका एक हिस्सा बन सके। वे एक ऐसे नेता के इंतजार में हैं जो उनके साथ खड़ा रह सके और पीछे से उनका नेतृत्व कर सके। दुर्भाग्य से आज का राजनीतिक नेतृत्व सिर्फ चुनाव लड़ना और सत्ता हासिल करना जानता है। वे पूरी तरह भूल चुके हैं कि राजनीतिक ताकत का प्रमुख लक्ष्य है लोगों का कल्याण करना और समाज को संगठित करना। मुझे विश्वास है कि दुनिया में कई युवा इन चुनौतियों से निपट सकेंगे। (लेखक गांधीवादी विचारक है)