प्रतिकूल परिस्थिति में भी शिक्षा नीति पर प्रगति – डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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राष्ट्रीय परिवेश के अनुरूप निर्मित शिक्षा नीति के एक वर्ष पूरे हुए। कोरोना संकट के कारण यह यात्रा बाधित हुई। शिक्षण संस्थाओं को महीनों तक बन्द करना पड़ा। इसके बाद भी भविष्य की आशा धूमिल नहीं हुई। अनेक स्तरों पर नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन संबन्धी प्रयास भी चलते रहे। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रगति हुई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उल्लेख भी किया। कहा कि एक वर्ष में शिक्षाविदों ने शिक्षा नीति को धरातल पर उतारने में कड़ी मेहनत की है। भारत की यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में बड़ा योगदान देगी। बहुविषयक शिक्षा और अनुसंधान विश्वविद्यालय देश के युवाओं के लिए नए अवसर का सृजन करेगी। यह अंतर अनुशासनात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देने के साथ भारत को अनुसंधान एवं विकास का वैश्विक हब बनाने में सहायक होगी। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली के लिए एक नई कल्पना का सूत्रपात किया है। यह एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण से जुड़ी दृष्टि को रेखांकित करने वाली है।

विगत एक वर्ष में देश के बारह सौ से ज्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों ने स्किल इंडिया से जुड़े कोर्सों की शुरुआत की है। ग्यारह भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई संभव होगी। फिलहाल पांच भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू होगी। ग्यारह अन्य भाषाओं में इंजीनियरिंग के कोर्स का अनुवाद शुरू हो चुका है। मातृभाषा में पढ़ाई से गरीबों का बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ेगा। प्रारंभिक शिक्षा में भी मातृभाषा को प्रमोट करने का काम शुरू हो गया है। किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था वहां के परिवेश के अनुकूल होनी चाहिए। इसमें उसकी भाषा,सभ्यता संस्कृति,सामाजिक मूल्यों को समुचित स्थान मिलना चाहिए। ऐसी शिक्षा नीति ही राष्ट्रीय स्वाभिमान का जागरण करती है।

अंग्रेजों द्वारा भारत में शुरू की गई शिक्षा राष्ट्रीय स्वाभिमान को हीनता में बदलने वाली थी। शिक्षा केवल बाबू बनाने के लिए होगी, तो उससे व्यक्ति समाज और राष्ट्र का अपेक्षित लाभ नहीं हो सकता। मानवीय दृष्टिकोण का भाव भी होना चाहिए। भारत में तो जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष बताया गया। उसी के अनुरूप सभी कार्यों का संदेश दिया गया। आधुनिक युग में होने वाले सकारात्मक बदलाव की स्वीकार करना अनुचित नहीं। लेकिन यह सब अपनी महान विरासत के प्रतिकूल नहीं होना चाहिए। विदेशी आक्रांताओं से कोई अपेक्षा नहीं थी। किंतु स्वतन्त्र भारत की शिक्षा नीति में परिवेश के अनुकूल परिवर्तन की उम्मीद थी। यह नहीं हो सका। वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है।

तीन दशकों बाद केंद्र में शिक्षा नाम प्रतिष्ठित हुआ। मानव संसाधन इसका विकल्प नहीं था। शिक्षा स्वयं में बहुत व्यापक अनुभूति का शब्द है। व्यक्ति समाज व राष्ट्र के सम्पूर्ण संचालन को यह प्रभावित करने वाला शब्द है। नाम में सुधार के साथ समय के अनुकूल व्यापक सुधार किए गए है। अगले दशक तक पूर्व विद्यालय से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा का सार्वभौमिकरण किया जाएगा। स्कूल से दूर रह रहे दो करोड़ बच्चों को फिर से मुख्य धारा में लाएगा। प्राथमिक शिक्षा में बड़े बदलाव किए जाएंगे। स्कूली पाठ्यक्रम को व्यवहारिक बनाया जाएगा। बुनियादी योग्यता को महत्व दिया जाएगा। क्लास छह से व्यावसायिक शिक्षा प्रारंभ हो जाएगी। पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई होगी। उच्च शिक्षा में अवसर बढ़ेंगे। इसके पाठ्यक्रम में विषयों की विविधता होगी।

ट्रांसफर ऑफ क्रेडिट की सुविधा के लिए अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट की स्थापना हो रही है। संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की जाएगी। महाविद्यालयों को पन्द्रह वर्षों में चरणबद्ध स्वायत्तता के साथ संबद्धता प्रणाली पूरी की जाएगी। नई शिक्षा नीति स्कूली और उच्च शिक्षा दोनों में बहुभाषावाद को बढ़ावा देती है। पाली, फारसी और प्राकृत के लिए राष्ट्रीय संस्थान, भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान की स्थापना की जाएगी। अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट और विद्या प्रवेश सहित नए शैक्षणिक कार्यक्रमों की शुरुआत हुई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अथवा कृत्रिम बुद्धिमत्ता के कार्यक्रम युवाओं को भविष्योन्मुखी बनाएगा। इससे संचालित अर्थव्यवस्था के रास्ते खोलेगा।

नरेंद्र मोदी ने कहा कि दशकों से ये माहौल समझा जाता था कि अच्छी पढ़ाई के लिए विदेश जाना जरूरी है। अब स्थिति इससे उलट होगी। अच्छी पढ़ाई व श्रेष्ठ संस्थानों में दाखिले के लिए विदेशों से भारत आएंगे। नई शिक्षा नीति युवाओं की आशा आकांक्षाओं और भविष्य को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)